पुस्तक समीक्षा : बनारस टॉकीज़
फ़ोटो: गूगल
"सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको खराब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद करके देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
यह बात है तो चलो बात करके देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़कर है काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इलज़ाम धर के देखते हैं
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अअपनी कबाएँ क़तर के देखते हैं।"
~ सूरज उर्फ़ 'बाबा' (बनारस टॉकीज़)
लेखक - सत्य व्यास
मूल्य - रु. 152 (पेपरबैक)
प्रकाशन - हिंद युग्म
जिन्हे बनारस से प्रेम है उनके लिए तो कोहिनूर है 'बनारस टॉकीज़' और जिन्हे बनारस से प्रेम नहीं है, तो उन्हें पढ़कर अवश्य हो
जाएगा।
क्या ही कहना इस उपन्यास के बारे में…ये कहानी है बी• एच• यू• से एल• एल• बी• कर रहे है कुछ युवाओं की है। इसका मुख्य
किरदार है ‘विशाल’ जो इस कहानी का वक्ता है और इस कहानी का नायक भी। इस कहानी में एक और मुख्य किरदार है और
वह है ‘भगवानदास’। नहीं-नहीं यह कोई उन लड़को का दोस्त नही अपितु यह कॉलेज होस्टल का नाम है, जहाँ पर विशाल और
उसके सभी दोस्त रहते हैं।
हिंदी उपन्यास पढ़ने में मेरी रूचि कुछ ज्यादा ही है इसलिए बस 5 से 6 घंटे के बीच में उपन्यास को पढ़ लिया था। इस उपन्यास
को पढने का दूसरा कारण यह भी था कि 'बनारस ' और 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ' को इतना अच्छे से पेश किया है कि एक
बार किताब उठाने के बाद पूरा पढ़ कर ही रखने का मन करता है ।
इस उपन्यास में भगवान दास (बी. डी.) हॉस्टल उपन्यास की ज़ान है और लंका पर बैठकर चाय पीना उसकी आत्मा। इंडिया टुडे ( हिंदी ) ने सत्य व्यास द्वारा लिखी इस उपन्यास को एकदम बेहतर परिभाषित किया है कि ' यह उपन्यास अपनी शैली और कथानक की रफ्तार की वजह से अपनी ओर ध्यान खीचता है।'
जी हाँ, उपन्यास की भाषा पर मत जाइएगा, अपनी भाषा के लिए ही यह उपन्यास इतना पसंद किया गया है। इस उपन्यास में एक से एक किरदार मिल जाएँगे आपको, जैसे ‘जयवर्धन’, उत्कृष्ट किरदार है मतलब ज़ान है उपन्यास की और 'दादा' मतलब गुरु इनकी सलाह के बिना कोई काम नहीं किया जाता बीडी हॉस्टल में, 'सूरज ' प्रेमी मतलब कविता प्रेमी और इसी तरह सारे किरदार आपस में एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।
रूम नंबर 79 से लेकर 85 तक इन कमरों में जो-जो और जितने किरदार गढ़े गए हैं वो सच में कुछ विशेष जगह पर ही मिलते हैं। और वो जगह है बीडी हॉस्टल यानि भगवानदास हॉस्टल।
इस उपन्यास की कहानी को लेखक सत्य व्यास ने इतने बेहतरीन तरीके से पेश किया है कि कहानी की शुरुआत में हंसी-ठिठोली
करते हुए, एक गहरी दोस्ती को दर्शाते हुए, जीवन जीने का ढंग व उद्देश्य बताते हुए उपन्यास के अंत में समाज पर टिपण्णी किया
व एक सुझाव के साथ उपन्यास का अंत किया है।
इस उपन्यास की भूमिका ऐसे लिखी गयी है जैसे किसी नई जगह पर जाने पर कोई गाइड हमे उस जगह के बारे में एक एक चीज़
बताने की कोशिश करता है। हूबहू वैसे ही इसकी भूमिका इसके किरदारों के बारे में बताती है। इसमें किताबी भाषा के अतिरिक्त
व्यावहारिक स्तर पर बोली जाने वाली बोली का भी बहुत ही सलीके से इस्तेमाल किया गया है जिससे इसे पढ़ने में रूचि दूगनी हो
जाती है। कई जगह गलियों का भी इतना शानदार प्रयोग किया गया है कि पढने में बस मज़ा ही आ जाता है।
इन सभी अच्छी बातों के अतिरिक्त उपन्यास की कहानी बीच में थोड़ी धीमी हो जाती है जिसे पढ़ने में थोड़ा-सा उबाऊ प्रतीत
होता है ऐसा इसलिए भी किया गया ताकि उस घटना को पूरी तरह से समझाया जा सके। कहानी काफी छोटी है, इसके अंत तक
पहुँचते-पहुँचते ऐसा लगता है कि कहानि अधूरी रह गयी है और थोड़ी लंबी हो सकती थी। परन्तु इन सब के अतिरिक्त कहानी का
अंत पढकर यह प्रमाणित हो जाता है कि यह उपन्यास लगातार आठ बार बेस्ट सेलर क्यों रही होगी।
इस उपन्यास की भूमिका पढ़ते वक्त ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि पाठक कोई किताब पढ़ रहा है, और यही इस किताब को विशेष बनती है। उपन्यास की पूरी भाषा बनारसी पुट लिए हुए है। माहौल कैसा भी क्यों न हो, भाषाई रंग बनारसी ही मिलेगा। उपन्यास की शुरुआत होती है तो लगता है जैसे ‘थ्री इडियट’ का ‘मिलीमीटर’ सबको इंट्रोडक्शन दे रहा हो। हालाँकि उपन्यास दिलचस्प है, पढ़ते हुए कई जगह अपनी हंसी रोक पाना मुश्किल है। हॉस्टल में रहने वालों के लिए ये किताब काफी अच्छी है, क्योंकि लेखक सत्य व्यास ने इस किताब के माध्यम से कहानी में होस्टलर्स के जीवन को प्रतिबिंबित किया है।

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